Sunday 17 November 2013

Dabang sey dabboo tak..

उम्र जैसे बीत गयी है एक पहेली के पीछे न जाने कितने पड़ाव आये जब दिल और दिमाग द्वंद्व करते रहे मगर सुकून नहीं मिल पाया .ज़िन्दगी में खुश रहने के खोखलेपन ने मानो मेरी खिलखिलाहट को चीन लिया . क्यूँ नहीं वो सब कर पायी जो मेरे बस में था.
वो तमाम गुण थे जो मेरे सपनो को अंजाम दे सकते थे . मैं दबंग से दब्बू कब बन गयी पता नहीं चला . अरमानो का गला घुटता रहा मगर सिसकियों ने टूट कर बिखरने नहीं दिया .अपने वज़ूद , अपने अस्तित्व अपनी पहचान कि तलाश में न ही इतिहास को साक्षी बनाया न ही अतीत में दबे पन्नो को पलटने की कोशिश की.अपनी मेहनत पर भरोसा था और स्वाभिमान और सहनशक्ति का सहारा था जिसने मुझे यहाँ तक ला कर किस्मत से पुनः जूझने को झकझोर दिया है.